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वेग
वेग संस्कार और न्यूटन के कर्म के
सिद्धान्त 1 (Mechanical Force and Newton's Laws of
Motion) संस्कार
(Force): प्रशस्तपाद ने संस्कार के तीन रूप कहे हैं।
- (i) वेग (यांत्रिक) (ii) भावना (भावनात्मक) (iii) स्थितिस्थापकता
(प्रत्यास्थता) प्रकृत प्रसङ्ग में हम वेग अर्थात् यांत्रिक बल पर
विचार करेंगे। प्रशस्तपाद ने वेग को निम्न प्रकार से परिभाषित किया
है - 2 (i) वेग: निमित्त
विशेषात् कर्मणो जायते। (ii) वेग: अपेक्षात् कर्मणो जायते नियत दिक्
क्रिया प्रबन्ध हेतु:। (iii) वेग: संयोग विशेष विरोधि, क्वचित
कारणगुण पूर्व क्रमेणोत्पद्यते। (महर्षि कणाद्, वैशेषिक सूत्र,
१-१-१४,"कार्य विरोधिकर्म।"), (५०० ई. पू.) वैशेषिक सम्मत पाँचों
आधारभूत भौतिक राशियों (जो कि ठोस, द्रव, गैस, ऊर्जा और मन है) में वेग
(यांत्रिक बल) एक विशिष्ट कारक है जो निर्दिष्ट दिशा में कार्य करता है
तथा समानुपाती कर्म को उत्पन्न करता है, तापमान के समान ही यह पदार्थ
संयोग का विरोध करता है। कभी-कभी एक ही 'वेग' के कारण अन्य कई वेग
श्रेणी में उत्पन्न होते हैं उपर्युक्त परिभाषा का निष्कर्ष
अधोलिखित है - 3 (i) कर्म हेतु 'वेग' एक
विशिष्ट कारक है। (ii) 'वेग' उत्पन्न कर्म के समानुपाती होता है और
नियत दिशा में कार्य करता है। (iii) 'वेग' पदार्थ संयोग का विरोध
करता है और कभी-कभी एक ही वेग, अन्य वेगों को श्रेणी में उत्पन्न करता
है।इस प्रकार परिभाषा को विवेचित करने के उपरान्त स्पष्ट प्रतीत होता
है कि उपर्युक्त कणाद द्वारा प्रतिपादित तीनों सिद्धान्त ही वर्तमान
में 'न्यूटन' के नाम से प्रथित हैं। इनकी व्याख्या अधोलिखित अनुच्छेदों
में की गयी है। कर्म का प्रथम नियम (First law
of Motion) 'वेग' शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है। 4 व्याकरण के अनुसार 'वेग'
वेजन के समतुल्य है। 'वेजयति' का अर्थ कर्म के कारण से है। अत: वेग का
अर्थ 'बल' (Force) से होना प्रतीत होता है। कर्म (motion) के विकास
अर्थात् वृद्धि में मूलभूत कारण वेग (Force) है। अर्थात् कर्म में
ह्रास-वृद्ध्यात्मक परिवर्तन होता है।' इस वक्तव्य की तुलना न्यूटन
के प्रथम कर्म नियम से सहजगत्या की जा सकती है। 5 कर्म का द्वितीय नियम (Second law of motion)
: वेग के परिमापन (The magnitude of the force) का यह
सिद्धान्त है। इसके अनुसार जितने अधिक समय तक वेग संस्कार कार्य करता
है उतने ही समय तक कर्म में वृद्धि (संवेग) परिलक्षित होती है। इसका
परिमाण ज्ञात करने हेतु इकाई समय में इसकी क्रिया पर विचार किया जाता
है। गणितीय रूप में संवेग में परिवर्तन की दर अर्थात् इकाई समय में
कर्म में वृद्धि कार्यरत वेग के समानुपाती होती है, तथा यह परिवर्तन
वेग की दिशा में होता है। 6 माना किसी पिण्ड का
पार्थिवमान 'm' है तथा समयान्तराल 't' में पिण्ड पर कार्यरत वेग के
कारण उसकी गमन (velocity) में परिवर्तन u से v हो जाता है।
तब प्रारम्भिक संवेग (कर्म) 7 = mv तथा अन्तिम संवेग
=mv संवेग में परिवर्तन= m(v-u) अत: संवेग में परिवर्तन की दर=
m(v-u)/t = ma (कर्म के प्रथम समीकरण से) तथापि कर्म के द्वितीय
नियम से- वेग α संवेग परिवर्तन की दर या p α ma या p = kma (k
एक स्थिरांक है) यदि m = १, a = १ तब १ = K X १ X १ या k =
१ या p = ma अत: इकाई वेग वह है जो इकाई पार्थिवमान (mass) के
पिण्ड में इकाई मात्रा में 'गमनचय' (acceleration) उत्पन्न
करे। मापन की C.G.S. प्रणाली में इकाई वेग (Unit force), डाइन
(dyne) जहाँ एक डाइन वह वेग (force) है जो एक ग्राम पार्थिवमान के
पिण्ड में १ सेमी/सेकण्ड२ का 'गमनचय' (acceleration) उत्पन्न करता
है। कर्म का तृतीय नियम (Third law of motion)
: ''प्रत्येक क्रिया के फलस्वरूप उसके बराबर और विपरीत
प्रतिक्रिया होती है।'' यह न्यूटन का तीसरा नियम है। 8 इस नियम के अनुसार जिस
दिशा में कार्य होते हैं उसके विपरीत दिशा में प्रयत्न किया जाता है।
उदाहरणार्थ-नाव खेना, जमीन पर चलना, पेड़ पर चढ़ना, पक्षियों का आकाश
में उड़ना इत्यादि। इन सभी घटनाओं में यह ध्यान देने योग्य है कि जिस
दिशा में कार्य (work) होता है ठीक उसके विपरीत दिशा में कार्य करना
पड़ता है। नाव खेने में पानी को पतवार से विपरीत दिशा में दबाना पड़ता
है। इसी प्रकार जमीन पर चलने की क्रिया जमीन को पैर से विपरीत दिशा में
दबाने से होती है। अत: वेग वह यांत्रिक बल है जिसके विपरीत पिण्डों
में वांछित कर्म प्राप्त होता है। 9 न्यूटन के नियमों से श्रेष्ठता (Superiority over
Newton's Laws) : वैशेषिक आचार्यो की वेग (force) के
सम्बन्ध में धारणा इस तथ्य को स्पष्ट रूप से प्रतिपादित करती है कि
'वेग' (force) 'कर्म' (motion) द्वारा अनुमानित है और कर्म के ज्ञान
हेतु भौतिक राशि है अत: उसका अस्तित्व भी हो यह आवश्यक नहीं है। जबकि
न्यूटन की धारणा में वेग (force) एक वास्तविक भौतिक राशि है।
'आइनस्टीन' के 'सापेक्षता सिद्धान्त' (Theory of relativity) में
कार्यरत 'काल्पनिक बल' (ficititious force) को हम आसानी से वैशेषिकों
के उपर्युक्त धारणा से समझ सकते हैं, जबकि न्यूटन के कर्म के नियमों
द्वारा यह सम्भव नहीं
है। **************************************** References 1 प्रशस्तपाद,-भाष्य, (६०० ई.
पू.) "संस्कारस्त्रिविध
उक्त:। वेगो-भावना-स्थितिस्थापकश्चेति।" 2 प्रशस्तपादभाष्य, संस्कार निरूपण,
(६०० ई. पू.) ''वेगोमूर्तिमत्सु पंचसु द्रव्येषु निमित्त
विवेषापेक्षात् कर्मणो जायते नियत् दिक् क्रिया प्रबन्ध हेतु:,
स्पर्शवद् द्रव्य संयोग विशेष विरोधी क्वचित्कारणगुणपूर्व
क्रमेणोत्पद्यते।'' 3 (i) वेग: निमित्त विशेषात् कर्मणो
जायते। (ii) वेग: अपेक्षात् कर्मणो जायते नियत दिक् क्रिया प्रबन्ध
हेतु:। (iii) वेग: संयोग विशेष विरोधि, क्वचित् कारणगुण पूर्व
क्रमेणोत्पद्यते। (महर्षि कणाद्, वैशेषिक सूत्र, १-१-१४,"कार्य
विरोधिकर्म।"), (५०० ई. पू.) 4 अमरकोष, रामाश्रमी टीका, "वेजनं
इति वेग: ओविजिभय चलनयो: वेजयति चालयति इति वेग:" 5 Sir Issac Newton, Principia, World
University Encyclopedia -Publishers Company, Ink, Washington, १९६५.
"Every body (mass) continues in its state of rest or of uniform
motion in a right (i.e., straight) line unless it is compelled to
change that state by force impressed upon it." 6 Sir Issac Newton, Principia,
W.U.Encyclopedia."The change of motion is proportional to the motive
formce impressed and as made in the direction of the right line in
which the force is impressed." 7 See Chapter XI कर्म - एकादश
अध्याय 8 Sir Issac Newton, Principia,
W.U.Encyclopedia."To every action there is always opposed and equal
reaction, or the mutual action of two bodies upon each other are
always equal and directed to contrary parts." 9 महर्षि कणाद्, वैशेषिक सूत्र,
१-१-१४, "कार्य विरोधिकर्म।", (६०० ई. पू.) | |